Apr 13, 2019

रूह का राग


न जाने किस शै की तलाश में भटकते, अपने ठीहे से बहुत दूर आ जाने पर एहसास होना कि अब तो याद नहीं कि मुझे तलाश किसकी थी। कुछ धुँधला सा उभरता है याद में कि बस सबसे भाग जाने को जी चाहता था। और जी ने जो चाहा है वो आसान कब हुआ है। भागते हुए भी हर बार वहीं पहुँचना, किसी परिधि पर घूमने जैसा, घड़ी की सूई की मानिंद। कोई विराम नहीं। अब कहीं भीतर से आवाज़ आती है कि वो सबकुछ अब भी वैसे ही ख़यालों में घुमड़ता है, जिससे भागना चाहा था। बार-बार टटोलती हूँ कि वो क्या है जो मेरे साथ ही चल रहा है।
भीतर का कोई शोर, घबराहट, कोई असुरक्षा, बेनाम सी बेचैनी... कुछ तो है, पर किसी ऐसे रूप में है कि पहचान में नहीं आता। या शायद उसे जान लेने का भी कोई वक़्त मुअय्यन होगा और तब तक यह अजीब सी कशमकश तारी रहेगी। ऐसे इंतज़ार हमेशा मुश्किल होते हैं, जिनकी कोई मियाद नहीं होती...

पर ज़िंदगी है, तो इंतज़ार है, इंतज़ार है, तो उम्मीद है, उम्मीद है तो हम हैं
ये बात और है कि, पूरे से ज़रा सा कम हैं...






Photo: Jenessa Wait
Hear My Heart




Aug 27, 2015

इज़ाडोरा डंकन


इज़ाडोरा बीसवीं सदी की महान नृत्यांगना थीं, साथ ही एक अत्यंत विवादस्पद और उन्मुक्त स्त्री भी. उनके नृत्य में इतनी पवित्रता और सम्मोहन था कि उन्हें ‘भोर की नर्तकी’ कहा जाता था. वे एक ऐसी स्त्री थीं जिसने अपने समय के बरक्स दस बीस साल नहीं वरन, सौ साल आगे जीते हुए प्रेम व जीवन के अद्भुत प्रयोग किये. इज़ाडोरा ने नृत्य के भी तमाम प्रयोग किये. वे सभी प्रयोग महानतम थे, इतने कि उन्होंने आधुनिक पाश्चात्य नृत्य को एक नया अर्थ, नया स्वरुप और नया आयाम दे डाला. लेकिन जो प्रयोग उन्होंने जीवन और प्रेम के क्षेत्र में किए, वे सिर्फ कलाकारों के लिए ही नहीं वरन विचारकों, दार्शनिकों, समाजशास्त्रियों, मनोवैज्ञानिकों, और वैयक्तिक स्वतंत्रता व नारी मुक्ति आंदलनों से जुड़े सभी बौद्धिकों के लिए बहुत ज़्यादा अहमियत रखते हैं. उनकी दुनिया कला व प्रेम की एक अनूठी भावमय दुनिया थी.


इज़ाडोरा डंकन
इज़ाडोरा हमें फिर तुम्हारी प्रतीक्षा है
इस शापित युग मेंहमें प्रतीक्षा है मानवता के नृत्य की
जिसमें झलकता हो सृष्टि का समन्वय
दुनिया के तमाम अश्लील और कामुक नृत्य के बीच
तुम्हारा अलौकिक नृत्य
जैसे सजदा हैबंदगी है
इलहाम की एक राह है

तुम्हारे पवित्र नृत्य का जादू
शायद उबार ले हमें
वासनाओं के भंवर से
हमारे बंजर मन में फिर उग सकें
संवेदनाओं के बिरवे
हम अपने नृत्य की आत्मा को खोजते
भटकते लोग हैं
हमारा नृत्य अब नहीं रह गया
हमारी संस्कृति का आइना
धीर धीरे उसमें से रिस चुका है
प्रकृति के लिए सहज नेह
हम खुद ही खौफ़ज़दा हैं अपने नृत्य से
हमारा नृत्य विध्वंस का नृत्य है
खून में नहाए हैं हमारे सुर
और स्वार्थ में लिपटी है लय
यूँ तो बेताल बेसुरा है हमारा जीवन
लेकिन ठोंक सकते हैं ताल
अलगाव के हर मसाइल पर
हर किसी के पास है अपना राग
और पंचम स्वर में हम लड़ते हैं
अपनी सब लड़ाइयाँ   
महज़ चंद शब्दों में समझ लो हमें
कि हम मानवता का लकवाग्रस्त अंग हैं


तुमने जर्मनीरूसफ्रांस के युद्ध
जिए हैंदेखें हैं
पीड़ा भरे मन से तुम गाया करती थीं मार्शिएज़
आज हमें भी ज़रूरत है कि कोई ‘जन-गण-मन’
फूंक दे हमारे कानों में
शायद हम खड़े हैं एक क्रांति की दहलीज़ पर
हमारी क्रान्ति हमारे ही ख़िलाफ़ है
हमारी ओढ़ी हुई आधुनिकता
और उधार की बौद्धिकता के खिलाफ
एक अभूतपूर्व क्रान्ति !!


एकबार फिर धरती पर आओ इज़ाडोरा
और अपनी उसी मुद्रा में हाथ उठाओ
जिसमें आकाश का आलिंगन करती
एक देवी सी लगती थी तुम
हमारे चेहरों में तुम देख सकोगी
अपनी द्रेद्रे को
और हमारे बच्चों में दिखेगी तुम्हे
पैट्रिक की सी मासूमियत
तुम देखोगी कि हमारे बीच ही
जीवित हैं पैट्रिक और द्रेद्रे
तुम्हारी गोद में खेलने को उमगते

नील के तट पर
नारंगी सूर्यास्त में डूबते हुए
तुम गुज़ारना अपनी शामें
और सारी रात खोजना नृत्य के नए आयाम
हमारे इतिहास भूगोल खंगालकर
ईज़ाद करना एक नृत्य
जो हमारी सभ्यता की ही नहीं
हमारे दिल की बात कहता हो

बोध गया जाकर
वर्नोनमिरोस्की और एल सहित
अपने सारे प्रेमियों का कर देना पिंडदान
और मुक्त कर लेना खुद को
अतीत की प्रेतबाधा से
बेचैन रूहों से महफूज़ रखना खुद को
और इसबार जीना अपने लिए
अपनी कला के लिए 
अपने अंजुरी भर सपनों के लिए.
एक ही जीवन में इतनी ठोकरें खाकर भी
क्या तुमने नहीं सीखा
कि प्रेम एक छलावा है
और बौद्धिक प्रेम एक निर्मम झूठ!

तुमने जो जागरण शुरू किया था
वो अब भी नहीं पहुंचा है जन जन के बीच
कि अब भी माँ बनने की पहली शर्त होती है सात फेरे
कि अब भी अकेली स्त्री सुलभ ही मानी जाती है
कि अब भी परोपकार का ठेका पुरुषों की संपत्ति है
अब भी प्रेमीअपनी प्रेमिकाओं को समझाते हैं
कि रहो घर परऔर पैदा करो बच्चे
मुझे सफल देखकर खुश हो और पा लो मोक्ष को
इज़ाडोरा तब से अब के बीच
बहुत सारी चीज़ें वैसी ही रह गयी हैं
बदला है तो सिर्फ ये कि
बस हम थोड़े और स्वार्थी हो गए हैं
अब हम कला का इस्तेमाल
किसी सामाजिक जागरण या भलाई के लिए नहीं करते
अब हम नहीं खोलते मुफ़्त स्कूल
अब हम सामान देकर वसूलते हैं कीमत
अब हमारा धर्म मानवता नहीं रहा
अब हमारा धर्म व्यापार है इज़ाडोरा


सभ्यता का ककहरा भूले हुए हम
तुम्हारी कला के भिक्षुक हैं
तुम अमेरिका का कीमती गहना हो
आज की महाशक्ति है तुम्हारा अमरीका
और हम उसकी कठपुतली!
हम अपनी दासता में क़ैद हैं
हमें आध्यात्म की वो ज्योति दिखाओ इज़ाडोरा
जो तुम्हारे भीतर प्रस्फुटित हुई थी
और जिसने किसी चुम्बकीय शक्ति की तरह
तुम्हे बुला लिया था एथेंस.
आओ कि अब भी थियेटर में
ट्रैजिक कोरस’ की वो कला नहीं लौटी है
जिसके सपने तुम देखा करती थीं.


मानवता और प्रकृति के
महामिलन पर होने वाले महानृत्य की
आकांक्षा में तुमने होम कर दिया
अपना सारा जीवन..
तुम्हारा जीवन समर्पण पर लिखा एक अध्याय है
इस दुनिया को छोड़ते हुए भी
तुम अपनी अमूल्य थाती दे गयीं थीं दुनिया को  
तुम्हारी पीड़ा की डायरी 
स्त्री की संवेदना के
अनेक आयामों को अपनी
छुअन से सहलाती एक जीवनी है
अदम्य साहस और जिजीविषा का एक आख्यान
आने वाली न जानें
कितनी सदियों तक
आधी आबादी के लिए
एक अखंड जोत
प्रेम के विराट स्वरुप और उसके
बेहद जटिल मनोविज्ञान का
भुगता हुआ यथार्थ


हम तुम्हारे कर्ज़दार हैं इज़ाडोरा
हमें एक मौका दो
इसा ऋण का भार कुछ कम हो सके
मानवता पर
कि फिर लौट आओइसलिए भी
कि हम इसबार तुम्हें वो सम्मान दें
जिसकी हक़दार रहीं तुम
कि इसबार हम तुम्हारे रूहानी नृत्य को
आत्मसात कर सकें इबादत की तरह
एक बार फिर ज़िन्दा कर दो वह मृत संस्कृति
और मुखाग्नि दे दो हमारे कुसंस्कारों को
इज़ाडोराईजाद करो वह नृत्य
जो समूची मानव जाति को
पिरो दे एक सूत्र में
और हम भीज जाएँ
प्रेम और उदात्तता की बारिश में!






Apr 29, 2015

निज़ार क़ब्बानी

(1)
‘गर्मियों में’

गर्मियों में 
तुम्हारे ख़यालों में घिरा
लेटा रहता हूँ मैं साहिल पर 

अगर कभी कह दूँ मैं सागर को 
कि किस तरह चाहता हूँ तुम्हें 

तो वो छोड़ देगा अपने साहिल को 
अपनी सीपियों और मछलियों को भी छोड़कर 
चल देगा मेरे पीछे-पीछे.

(2)
‘तुम्हे चूमते हुए हरबार’
तवील जुदाई के बाद 
जब भी चूमता हूँ तुम्हें 
खुद को इतना उतावला महसूस करता हूँ 
जैसे कोई प्रेमी बेचैन हो 
अपनी चिट्ठी को
लाल डब्बे में डाल देने के लिए.

(3)
‘मेरे महबूब’
मेरी महबूब 
गर तुम भी मेरे प्यार में 
मेरी तरह पागल होती 
तो फेंक आती अपने सारे गहने 
बेच आती कंगन 
और सुकून से सो जाती मेरी आँखों में.

(4)
‘लैम्प और रौशनी’

लैम्प से ज़्यादा ज़रूरी है रौशनी 
जैसे नोटबुक से ज़्यादा ज़रूरी है कविता 
और लबों से ज़्यादा ज़रूरी है बोसा.
जो ख़त मैंने तुम्हें लिखे हैं 
वे हमारे वज़ूद से कहीं ज़्यादा ज़रूरी हैं 
सिर्फ़ ये ख़त ही तो वो दस्तावेज़ हैं 
जहाँ लोग खोज सकेंगे 
तुम्हारी ख़ूबसूरती 


और मेरे पागलपन को 
(5)
‘मेरे महबूब ने पूछा’

मेरे महबूब ने पूछा मुझसे 
कि “क्या फर्क है मुझमें और आसमान में?”
मैंने कहा.. मेरी जान फ़र्क ये है कि 
जब तुम हंसती हो 
तो 
मैं भूल जाता हूँ आकाश को.

(6)

‘आज़माइश’
पूरब तक पहुँचते हैं मेरे गीत
कुछ उनकी तारीफ़ करते हैं
और कुछ भेजते हैं कोसने
मैं कृतज्ञ होता हूँ उन सब के प्रति
क्योंकि मैंने हर उस औरत के 
रक्त का बदला लिया है जो मारी गयी है 
और डरी हुई औरतों को मैंने दी है पनाह
उन गीतों में
मैंने साथ दिया है 
औरतों के बाग़ी दिलों का 
और तैयार हूँ इस ख़ातिर कोई भी कीमत चुकाने को
मर जाने में मुझे सुकून है 
गर मेरी जान मोहब्बत में जाए तो 
क्योंकि मैं प्रेम का हिमायती हूँ 
और जो मैं ये न हुआ 
तो मैं नहीं रह जाऊँगा ‘मैं’.


Apr 28, 2015

रेखाएं


परिचय लिखना अपने होने को अंडरलाइन करने जैसा ही होगा. हालाँकि मैं अपने अस्तित्व को अंडरलाइन करने लायक तवज्जो शायद न देना चाहूँ. प्रयास के बावजूद भी यह होना ज़रा मुश्किल ही होता है कि आप सबके साथ जीते-खाते-रहते हुए भी यूँ रह सकें कि कोई निग़ाह किसी जिज्ञासावश आपनी ओर न उठे. इसके लिए लम्बे समय तक मौन रहकर खूब सारी धूल को जमने देना होता है अपने होने’ पर. समय बीतने की गति से कई गुना ज्यादा गति के साथ पुराना होना पड़ता है और फिर अदृश्य भी. लेकिन किसी दिन ऐसे ही परिचय के माध्यम से अंडरलाइन होने की गुस्ताखी आपके उस लम्बे के समय सारे प्रयासों को निरर्थक सिद्ध कर देती है.

इसलिए मेरा परिचय लगभग वही है जो मेरे जैसी तमाम औरतों का है. जो अपना परिचय देने में इसलिए भी संकोच करेंगीं कि वो शायद बहुत प्रभावी न लगे सुनने मेंशायद कुछ विरोधाभास भी हो उसमेंशायद उसमें मायूसी और असंतोष के शब्द छिटके पड़े मिल जाएँशायद वो कुछ सवाल पैदा कर दे सामने वाले के मन मेंजैसे गणित और अर्थशास्त्र पढ़ने वाली ये लड़की अगर कविता के चक्कर में पड़ी ती इसके पीछे क्या दिलचस्प किस्सा हो सकता हैकि क्यों किसी अंग्रेज़ी कंपनी की नौकरी के बाद भी इसे लगता है कि यहाँ इसके होने और पनपने के लिए उपयुक्त खाद-पानी मिलेगाकि क्यों इसे लगता है जो बेनाम अधूरापन है वो दरअसल अपने आत्म की तलाश हैक्यों इसे लगता है कि जो विज्ञान के तमाम समीकरण नहीं समझा पाते उसे कविता आत्मा पर अंकित कर देती है कुछ ही शब्दों में..

बात सिर्फ़ इतनी सी है कि मैं वैसी ही हूँ जैसी मेरे मोहल्ले में कतारों में सजे घरों में रहने वाली कई औरतें हैं. सुबह से रात तक जो गृहस्थी में उलझी होती हैं और बीच-बीच में छोटे अंतराल निकालकर झाँक लेती हैं अपने अन्दर, टटोलती रहती हैं मन को, कि वो क्या है जो इसे बेचैन करता है जबकि सब काम अपने समय और गति के अनुसार होते चले जा रहे हैं. ऐसे ही खाली समय में वो निहारती हैं अपनी हथेलियों को और उनकी आँखों से झांकते हैं मूक प्रश्न, वो तलाशती हैं जवाब रेखाओं के उस अंतरजाल में जिसकी न लिपि जानती हैं न व्याकरण...       
रेखाएं
__________ एक_______

कुछ रोज़ देखी जाने वाली 
चीजों में शामिल हैं
हथेलियाँ
जिनकी पड़ताल
हम करते हैं बेनागा 
पर क्या हम स्पष्ट देख पाते हैं
इनमें होने वाले बदलाव
क्या हमें खबर होती है
कि हथेली की कौन सी रेखा
हो गयी है और भी गहरी
या हम जान पाते हैं कभी 
इन रेखाओं के बढ़ने
और घटने को
संभवतः कोई नहीं बता सकेगा
कि पिछले दिन की तुलना में
कितनी और नई रेखाओं ने
कब्ज़ायी है हथेलियों की ज़मीन
यह सत्य है कि...
हम नितांत अनजान होते हैं
रोज़ दिखने वाली चीजों के प्रति भी

_________ दो__________

कुछ गहरी सी लगी आज
मेरी हथेली पर रहने वाली ह्रदय-रेखा
और जीवन-रेखा के समान्तर
चलने लगी है एक और जीवन-रेखा
क्यों अचानक कम हुई सी लगीं
छोटी-छोटी उलझनों की लकीरें
और हथेली में ही कहीं विलीन हो गयी
भाग्य रेखा
कैसा संकेत है यह?
हैरान थी मैं देखकर
हथेलियों का यह बदलाव
कि तभी याद आया..,

बीती शाम तुमने थामा था मेरा हाथ..
_________ तीन__________

मेरी हथेली पर
तुम्हारी रेखा स्थायी नहीं है
और मेरे जीवन में तुम!
हर रात खींचती हूँ
हथेली पर इक लकीर
क्योंकि उम्मीद की इक नाव
अब भी तैर रही है
संवेदनाओं के तरल में
तुम बारिश के सूरज की तरह
अनिश्चित
और मैं पर्वत सी अटल
तुम्हारी प्रतीक्षा से उपजी आकुलता
प्रतिध्वनित होती है हर क्षण
मेरी साँसों में
और कहती है
सच में .. खानाबदोश हो तुम !
----------------चार----------------------
कैसे समा जाता है
यह सुदीर्घ जीवन
एक छोटी सी हथेली में
ये आड़ी-तिरछी रेखाएं
कितना कुछ कहती हैं
अपनी गूढ़ भाषा में
कैसी होती हैं इनकी भंगिमाएं
कहीं जैसे कोई बात अधूरी छोड़कर
सुस्ताने बैठ गयी हो एक महीन रेखा
और कहीं यूँ लगता है जैसे
अपना ही कहा काट गयी हो कोई गहरी रेखा
अनेक प्रेममय क्षण मुसकाते हैं शुक्र पर्वत की छाया में
और शनि-मंगल ने ह्रदय रेखा तक फैला रखा है अपना प्रकोप
ताप-संताप
मिलन-विरह
और न जाने कितने ही परिवर्तनों का इतिहास
दर्ज है इन हथेलियों पर भूगोल बनकर
कि हम अपने हाथों में लेकर घूमे रहे हैं
अपने जीवन का नक्शा
_________________________________________________
भावना

Apr 23, 2015

कला का एक सबक बेटे के साथ


बेटे ने मेरे सामने रख दिया अपना रंगों का डिब्बा और मुझे कहा कि बना दूँ एक चिड़िया उसके लिए मैंने सलेटी रंग में डूबाई अपनी कूची और बनाने लगा लोहे की छड़ों वाली एक चौकोर आकृति, जिस पर जड़ा था ताला अचरज से फ़ैल गयी उसकी आँखें: ;... लेकिन ये तो जेल है, अब्बा क्या आप नहीं जानते, कि कैसे बनाते हैं चिड़िया?’ और मैं उसे कहता हूँ: ‘बेटा, माफ़ कर दो मुझे. मैं भूल गया हूँ चिड़ियों के आकार.’
मेरा बेटा मेरे सामने रख देता है अपनी कला की कापी और मुझसे कहता है कि उसके लिए मैं बना दूँ गेंहूँ की बालियाँ मैं पेन पकड़ता हूँ और खींच देता हूँ एक बन्दूक का चित्र वह हंस देता है मुझे नादान समझकर और कहता है ‘अब्बा क्या आप नहीं जानते गेंहूँ की बालियों और बंदूकों के बीच फ़र्क?’ मैं कहता हूँ, ‘बेटा एक वक़्त था जब मैं जानता था गेंहूँ की बालियों का आकार रोटी और गुलाब के फूल की आकृति लेकिन इस मुश्किल समय में जंगल के दरख्त भी मिल गए हैं सेना के आदमियों से और थकावट से झुक गया है गुलाब का फूल हथियारबंद गेहूं की बालियों व परिंदों सशस्त्र संस्कृति व धर्म वाले इस समय में तुम एक रोटी भी खरीदोगे तो उसके अन्दर बन्दूक रखी मिलेगी गुलाब का एक फूल भी तोड़ोगे तो उसके कांटे बढ़कर तुम्हारे चेहरे को खरोंच देंगे किताब खरीदना चाहोगे तो कोई ऐसी किताब न मिलेगी जिसे थामने पर वह फट न पड़े तुम्हारी अँगुलियों के बीच.’
मेरा बेटा बैठ जाता है मेरे बिस्तर के एक किनारे पर और मुझे कहता है कि उसे सुनाऊं कोई कविता मेरी आँखों से गिरता है एक आंसू तकिया पर हैरानी से भरा वह अपनी जीभ फेरता है और सोख लेता है गिरी हुई बूँद वो कहता है कि ‘अब्बा ये तो आंसू है न कि कविता!’ मैं उससे कहता हूँ कि ‘बेटा जब तुम बड़े हो जाओगे और पढ़ोगे अरबी कविता का दीवान, तो जानोगे कि
शब्द और आंसू तो जुड़वाँ भाई हैं और यह भी कि अरबी मौसिक़ी कुछ नहीं है सिवा रोती उँगलियों से टपके आंसू के.’
मेरा बेटा रख देता है अपनी कलम और मोम रंगों का अपना डिब्बा मेरे सामने और कहता है कि मैं उसके लिए बनाऊं हमारे वतन का एक चित्र. मेरे हाथ कांपते हैं उन रंगों को थामे और मैं डूब जाता हूँ आंसुओं की नदी में!